
सिवनी मालवा (पवन जाट)
कृषि परंपराओं और लोकआस्था से जुड़े सबसे प्राचीन उत्सवों में से एक मछुन्द्री माई की पूजा इस वर्ष भी बड़े हर्ष और उत्साह के साथ ग्राम रेहड़ा में सम्पन्न हुई। रवि फसल की बुआई पूरी होने के बाद किसानों ने बुधवार को खेतों में पहुंचकर सदियों पुरानी इस परंपरा को निभाते हुए धरती माता के प्रति आभार व्यक्त किया। ग्रामीण अंचल में इसे नाड़ी पूजा के नाम से भी जाना जाता है, जिसे किसान बुआई के 10 से 15 दिन बाद विधि-विधान से करते हैं।ग्राम रेहड़ा के किसान—कैलाश चोयल, रामकिशोर, अशोक, संतोष चोयल, आनंद, पवन, सूरज, चंद्रशेखर, नीरज और पंकज—अपने परिवारों और खेतों में कार्यरत मजदूरों के साथ सुबह से ही खेत में एकत्र हुए। परंपरा के अनुसार घास और खाखरे के पत्तों से छोटी झोपड़ी बनाकर उसमें मछुन्द्री माई की स्थापना की गई। ग्रामीणों ने बताया कि यह पूजा कृषि संस्कृति का मूल है, जो किसान को जमीन से जुड़े रहने और प्रकृति के प्रति कृतज्ञ रहने का संदेश देती है।पूजन के लिए चना और गेहूं उबालकर घुघरी तैयार की गई और उसे भोग स्वरूप अर्पित किया गया। इस दौरान भगवान विष्णु, माता लक्ष्मी और भगवान बलराम का आह्वान करते हुए मिट्टी की प्रतीकात्मक प्रतिमाओं का पूजन किया गया। परिवार के सदस्यों ने एक स्वर में आने वाली फसल के अच्छे होने और मौसम की अनुकूलता की कामना की।इस पूजा की सबसे प्रमुख और रोचक परंपरा है — दूध की धारा से भविष्यवाणी करना। मिट्टी के पात्र में दूध चढ़ाया जाता है और उसे उफान आने दिया जाता है। जिस दिशा में दूध की धारा गिरती है, उसी दिशा से फसल की दशा का अनुमान लगाया जाता है। मान्यता के अनुसार अगर दूध उत्तर दिशा में गिरे, तो वर्षभर फसल उत्कृष्ट होती है। इस वर्ष के अनुष्ठान के दौरान दूध उत्तर दिशा की ओर बहा, जिसे ग्रामीणों ने शुभ संकेत मानते हुए खुशी व्यक्त की।पूजा के बाद प्रसादी के रूप में घुघरी का वितरण किया गया। अंत में बच्चे खेतों में जाकर लहलहाती फसल के बीच कुलाट लगाकर उत्साह से झूम उठे। यह दृश्य खेतों में मानो एक छोटे से उत्सव का माहौल बना रहा था।गांव के बुजुर्गों ने बताया कि मछुन्द्री माई की यह प्रथा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि किसानों की सांस्कृतिक पहचान और कृषि जीवन की आत्मा है। आधुनिक समय में भी यह परंपरा उतनी ही जीवंत और प्रभावशाली है, जितनी वर्षों पहले थी।
